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Public Pathshala

Just by knowing the definition of rationalism, does not make one rational. But by the believing in bad belief one hope to become religious. A person thinks about one’s own world. Quid pro quo, whole world must think about that one person. For that one must learn to read self and the other as one.

शिक्षा, स्वराज और पब्लिक पालिका: एक नई सभ्यता की नींव

आज जब हम ग्लोबल विलेज की बात करते हैं, तो यह सोचने का समय है कि राष्ट्र और सीमाओं की परिभाषा पर पुनर्विचार किया जाए। यदि लोकल प्रशासन को सशक्त किया जाए और संसाधनों का नियंत्रण जनता के हाथ में हो, तो क्या यह नस्लीय, धार्मिक और राजनीतिक संघर्षों को कम नहीं करेगा? यदि पब्लिक पालिका मॉडल को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लागू किया जाए, तो युद्ध, शरणार्थी संकट और आर्थिक शोषण जैसी समस्याओं को जड़ से समाप्त किया जा सकता है। आखिर, युद्ध वे लड़ते हैं जिन्हें जनता के भविष्य से कोई सरोकार नहीं।

पब्लिक पालिका का बजट

सूचना क्रांति आज एक नए मुकाम पर खड़ी है। ज्ञान अर्थव्यवस्था में सूचना ही नई मुद्रा है। कृत्रिम बुद्धि के उपयोग से हम हर विद्यार्थी के लिए एक अनूठा रास्ता तराश सकते हैं। अब स्कूलों में परीक्षाएं नहीं होंगी। ये सारी सामग्री हर विद्यार्थी को जनहित में उपलब्ध रहेगी। स्थानीय स्कूल को इंटरनेट से जोड़कर देश भर की पब्लिक पालिकाएँ यह सुविधा हर छात्र तक पहुंचाएगी। यहाँ हर कल, विज्ञान की विधा पर विशेषज्ञों के व्याख्यान अखीकृत तौर पर उपलब्ध होंगे। छात्र और शिक्षक मिलकर बेहतर सामग्री करने हेतु शोध और सृजन का रास्ता अपनायेंगे। इस उम्मीद के साथ इस बजट में कुछ और जरूरी संशोधन किए गए हैं। अब देश के नागरिक अपनी मांगों को पब्लिक पालिका को दे सकती है, और जहाँ आयकर एक ख़ास सीमा से ऊपर होगा, वहाँ से राज्य पालिका तक अर्थ के रास्ते खुलेंगे। अब नागरिक नहीं, स्थानीय सरकार ही कमाकर राज्य सरकार को पाल रही होगी। राज्य सरकार की जिम्मेदारी उन क्षेत्रों में संसाधनों की आपूर्ति करने की रहेगी जहाँ आय कम हैं। इस तरह अर्थ की आपूर्ति वहाँ भी होगी जहाँ अब तक बिजली नहीं पहुंची। इसी तरह मुद्रण का प्रवाह राज्य से अब केंद्र की ओर होगा, जहाँ से केंद्र उन राज्यों पर विशेष ध्यान देगा जहाँ अभाव का बोध होगा।

केंद्र नहीं, गाँव-घर बचाइए!

मेरे अनुमान से Educational Reform या शिक्षा क्रांति के बिना पब्लिक पालिका कभी एक सामाजिक सच्चाई नहीं हो पाएगी। भारतीय मानसिकता आज भी भगवान भरोसे बैठी है। जिज्ञासा का सामाजिक और व्यक्तिगत अस्तित्व ही शैक्षणिक गलियों में नाली के कीड़े बराबर बची है। हम सब किसी पर जिम्मेदारी या आरोप लगाकर मुक्ति तलाश रहे हैं। बहुत कम ही आर्थिक क्षेत्र बचे हैं जहाँ भारत का वर्चस्व बचा है। मुश्किल से इज्जत बचाने वाली मानसिकता मध्य वर्गीय सोच में बहुमत में व्याप्त है। जीवन स्वाभाविक रूप से आलसी होता है। तभी जिज्ञासा विज्ञान की शरण में सुख तलाशती है। आज का सनातनी अपने किसी भी वर्ण या आश्रम में ख़ुद से ईमानदार नहीं है। पारिवारिक परिवेश में भ्रष्टाचार का खुलेआम ललन पालन हो रहा है। ऐसे मनोदशा में पब्लिक पालिका कभी मूर्त रूप प्राप्त नहीं कर पायेगी। ज्ञान अर्थव्यवस्था में अस्तित्वगत जरूरतों की पूर्ति के लिए भी ज्ञान की जरूरत पड़ेगी। सूचना ही तो आज नई मुद्रा है। पब्लिक पालिका का रास्ता इहलोकतंत्र से होकर गुजरता है। इहलोकतंत्र को स्वराज के पर्यायवाची की तरह भी देखा जा सकता है।

गाँव बचाओ अभियान

भारत के गाँव मर रहे हैं, और इसके साथ ही मर रहा है हमारा लोकतंत्र। यह कोई काव्यात्मक अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि एक ठोस वास्तविकता है, जिसे आँकड़ों से सिद्ध किया जा सकता है। 1951 की जनगणना में 82.7% भारतीय गाँवों में रहते थे, आज यह संख्या घटकर 65% के आसपास आ गई है। शहरीकरण को अगर "विकास" का पर्याय मान भी लें, तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह असंतुलित विकास है, एक तरफ़ा प्रवास है, और मूल रूप से एक सामाजिक एवं आर्थिक पतन का लक्षण है।

Four Hypotheses: Public Palika

Good morning. I tried recording the script with satisfactory results. However, I need to improvise before final release. I need to hone up my oration to make the desired impact. The motive behind this creation is to distribute the idea of Public Palika for open discussion particularly within the academics. According to me it is an economic solution to the present crisis India and Indians are facing. I want to make one more episode before I take the Idea to public.

एक लोकतांत्रिक अवतार

मेरे अनुमान से इस शिक्षा व्यवस्था में एक ऐतिहासिक और दार्शनिक दोष है। हमारे इतिहास में आज तक पुनर्जागरण काल नहीं आया, जब जनमानस को अपनी रचना-शक्ति पर आस्था हो। यह आस्था ही थी जिसने साहित्य, कला के रास्ते उद्योग की रचना की। हमारे आदिकाल में ही कहीं स्वर्ण-युग की तलाश में देश और काल की जवानी बर्बाद हुए जा रही है। सृजन की संभावना कुछ युवाओं को दिखती भी हैं। पर, वे छोटी-मोटी उपलब्धि से ही संतुष्ट हो जाते हैं। वे सत्याग्रह नहीं करते। वे अपने सच को ही सत्य मान बैठते हैं। मुझे उनकी दरिदता पर तरस भी आता है। मैं चाहकर भी कुछ कर नहीं पाता हूँ। हिन्दी विभाग के सृजनशील शिक्षकों की बातों से भी मुझे निराशा के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा। अनुभव में भी वे दरिद्रता ही तलाशते मिले। मैं भी किसी का अपमान नहीं करना चाहता, शौक़ से गालियाँ देता हूँ, पर किसी की भावना को चोट पहुँचाने की प्रवृति मेरी तो नहीं।

उद्योग “बनाम” सहोद्योग

जब तक जंगल के क़ानूनों पर लोकतंत्र चलता रहेगा, मुझे तो उम्मीद नहीं है कि कुछ भी जीवन के पक्ष में बदल पाएगा। जब शिक्षा-दीक्षा में प्रतियोगिता से सहयोग की भावना का संचार होगा, तभी जिस लड़ाई को हम और आप लोकतंत्र के दंगल में लड़े जा रहे हैं, उसका समाधान मिल पाएगा। धर्म और शिक्षा जिस सामाजिक अवधारणा की स्थापना हमारे अंतःकरण में करती रहेगी, उसी आधार पर हमारी दुनिया चलती रहेगी।

महंगाई: आर्थिक या काल्पनिक

महंगाई — किसी भी अर्थव्यवस्था का एक अनिवार्य अवांछनीय भाग है। अकसर, महंगाई की साहित्यिक तुलना डायन से की जाती रही है। क्यों महंगाई बढ़ जाती है? मेरी समझ से इसके तीन आयाम हैं, जिसमें तीन घटक अपनी भूमिका निभाते हैं। ये तीन घटक कुछ इस प्रकार हैं — माँग, आपूर्ति और क्रय शक्ति। आय और क्रय शक्ति का सीधा संबंध है। जितनी आय होगी, हमारी क्रय शक्ति उतनी ही होगी, वैसे कर्जा लेकर हम अपनी क्रय शक्ति बढ़ा सकते हैं।

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