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मेरी मनोवैज्ञानिक समस्यायें

ज्ञान हमारी वर्तमान चेतना का गुण है। चेतना हमेशा वर्तमान में ही मौजूद रहती है। चेतना का एक भाग हमारा मन भी है, जो काल और स्थान से परे है। आत्मा तो चेतना के लिए ईंधन की तरह है, जैसे भोजन हमारे शरीर का ईंधन है। एक जीवन में दोनों का विस्तार लगभग बराबर ही होता है। अपने कार्यकलापों का निर्णय तो हम सिर्फ़ अपने मन से लेते हैं। हम अपने मन के ग़ुलाम हैं। अहंकार की तरफ़ हमारा हर कदम जीवन से दूर जार रहा है। चेतना और आत्मा की तरफ़ हमारी हर पहल हमें जीवन का आनंद दे रही है।  इसलिए, हमारा मन ही है, जो मुक्त हो सकता है। चेतना में आनंद मात्र है, सुख और दुःख तो सिर्फ़ हमारा मन झेलता है। मन और चेतना के मिलन से ही तो मुक्ति-मार्ग दिखाई पड़ती है। वही दिखाने की कोशिश मैंने आगे दिये तस्वीर में दिखानी की कोशिश कर रहा हूँ। शायद, इसलिए मैंने यह अनुमान लगाया कि दर्शनशास्त्र से मनोविज्ञान का बहुत ही करीबी रिश्ता है। मन को समझे बिना, हम उसे देख कैसे सकता हैं?

इसलिए मैंने दर्शन के साथ-साथ मनोविज्ञान का अध्ययन भी किया। जब भी हम अपने अस्तित्व का अर्थ खोजने निकलते हैं, मन ही हमारा मार्गदर्शक भी होता है, वही हमारे रास्ते का अवरोधक भी बन जाता है। बचपन से जिस अकेलापन का मैं शिकार रहा हूँ, उसी ने मुझे अपने मन को समझने में सहयोग दिया है। 

मेरी दो प्रमुख मनोवैज्ञानिक समस्या है। पहला नशा है। मैं कई तरह के नशे का सेवन करता आया हूँ। तंबाकू से शुरू करते हुए मैं शराब तक पहुँच, जहां से ड्रग्स के रास्ता भी कुछ दूर चल चुका हूँ। संभोग एक शारीरिक समस्या तो बाद में है, वह पहले तो यह एक मानसिक उलझन है। नशे से उत्तपन्न भ्रम और संशय ने मेरी चेतना को अज्ञानता के कुचक्र में रहने को मजबूर कर दिया है। हर प्रकार की शारीरिक कमजोरी से लेकर कैंसर तक का सफ़र मैंने अपनी कल्पनाओं में कई बार तय किया है।

इस तस्वीर में जो लकीरें बनी हुई हैं ना, वो हमारी कल्पनाओं की दिशा की दर्शा रही हैं। ईमानदार और सत्य की निकटतम कल्पना और उसकी अभिव्यक्ति में ही मुक्ति का मार्ग छिपा हुआ है। ईमानदार अभिव्यक्ति के लिए हम किसी भी साधन का इस्तेमाल कर सकते हैं, या नया गढ़ भी सकते हैं। आज हर सिन दुनिया में अभिव्यक्ति के नये-नये साधन गढ़े जा रहे हैं। सिर्फ़ यूट्यूब पर 720,000 घंटों का नया वीडियो हर दिन अपलोड हो रहा है। मतलब, इन्हें देखने में एक व्यक्ति को 82 साल लग जाएँगे। इसलिए, तो हमारे बच्चे पर हमारे ही फ़ोन पर यूट्यूब या किसी और की अभिव्यक्ति देखने के लिए चिपके रहते हैं। मेरी बेटी तो छह महीने की उम्र से फ़ोन से चिपकी हुई है। हम इन्हें नयी बेवक़ूफ़ियों को करने का मौक़ा नहीं देते, इन बेचारों की क्या गलती है? ये दूसरों की बेवक़ूफ़ियों को देखकर ही हमारी तरह खुश हैं। हम भी तो हर पल बेवक़ूफ़ी करने के डर में जिये चले जा रहे हैं। कहीं कोई बेवक़ूफ़ी ना कर बैठें, जिस पर हमारी जग-हंसाई हो! मैं भी तो हर दिन नशे में बेवक़ूफ़ियाँ ही तो कर रहा हूँ। क्या मैं अकेला हूँ?

तंबाकू के विभिन्न उत्पादों का मैं ग्राहक हूँ। मुख्यतः रजनीगंधा-तुलसी मेरे मुँह में रहती है। लगभग 15 सालों से मैं तंबाकू का किसी ना किसी प्रकार से सेवन करता आया हूँ। कई बार डॉक्टरों से परामर्श लेने का प्रयास किया, वे डर का प्रयोग करते हैं। एक ने मुझसे कहा कि अगर इसी तरह से मैं तंबाकू का उपयोग करता रहा, तो एक दिन मेरी पत्नी को किसी और के पास जाना पड़ेगा। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि वे एक प्राकृतिक चिकित्सक हैं, और हमारा उनसे पारिवारिक संबंध भी है, ख़ुद को वे मुझे मेरे मामा बताते हैं। मैं उनके पास इलाज करवाने भी नहीं गया था, मैं तो उनके हॉस्पिटल के प्रचार-प्रसार के लिए वेबसाइट और वीडियो बना रहा था। मेरा काम भी उन्हें बहुत पसंद आया था। मैंने उनसे अपनी तंबाकू वाली समस्या बतायी, पर उनकी अप्राकृतिक और अनैतिक बातों से मैं आहत हुआ और आगे का काम भी छोड़ दिया। अभी कुछ दिन पहले उन्हें फिर मेरी याद आयी, कुछ काम था। काम बताकर उन्होंने मेरी दिलचस्पी पूछी, मैंने साफ़ इनकार कर दिया। मेरा तो पिछला पैसा भी अभी तक बाक़ी है। मैं वहाँ कोई समाज-सेवा थोड़े ही रहा था। पिछली बार मैंने उनके लिए ईमानदारी से काम किया था, जिसके बदले उन्होंने मुझे वे पैसा भी नहीं दिया, जितना उन्होंने काम पूरा होने के बाद देने का वादा किया था। मैं पूरी कोशिश करता हूँ कि अपने काम को कभी अधूरा नहीं छोड़ूँ। जहां तक का वादा किया था, उतना काम पूरा करने के बाद ही आगे का काम करने से मैंने इनकार किया था। पता नहीं ऐसे अशिक्षित लोग डॉक्टर कैसे बन जाते हैं?

मैंने किसी डर से अपनी तंबाकू-वाली आदत को छोड़ने से इंकार कर दिया। पर मुँह के हर छाले या घाव से डर तो लगा ही रहता है, कहीं यही तो कैंसर नहीं है? पर मैंने आज तक जिन दो-या-तीन कैंसर पीड़ित लोगों की मौत का प्रत्यक्ष हूँ, इनमें से कोई भी तंबाकू का सेवन नहीं करता था। इन प्रत्यक्ष प्रमाणों से कम-से-कम इतना तो अनुमान लगा ही सकता हूँ कि कैंसर सिर्फ़ तंबाकू से नहीं होता है। बाक़ी, मृत्यु से आज तक कौन बच पाया है? जब इस जगत से हमारी ज़रूरत ख़त्म हो जाएगी, तब यहाँ हमें रुकने के लिए कोई विवश नहीं कर सकता है। मैं नशे के किसी प्रकार का ना समर्थक हूँ, ना ही इनका विरोधी हूँ। पर इतना ज़रूर मानता हूँ कि अगर इनकी ज़रूरत नहीं होती, तो इनका अस्तित्व भी नहीं होता। इस जगत में कुछ ऐसा नहीं है, जो ज़रूरी ना हो, अतः समाज को इनकी ज़रूरतों का ज्ञान ज़रूर देना चाहिए, और अंतिम निर्णय व्यक्ति-विशेष पर छोड़ देना चाहिए, क्योंकि कोई भी नियम-क़ानून ऐसा नहीं बना है, जिसे तोड़ा ना जा सके।

तंबाकू के हर उत्पाद पर घिनौनी शक्लों की तस्वीर लगी रहती है, जिसमें कैंसर के उनके विकृत मुँह या छाती की तस्वीर लगी होती है। सरकार सिन-टैक्स या पाप-कर के नाम पर इनका दाम बढ़ाते जाती है। बढ़ते दामों के साथ इनकी माँग भी बढ़ती ही जाती है। फिर एक दिन सरकार इन्हें प्रतिबंधित कर देती है, जिसके कारण कालाबाज़ारी शुरू होती है। जो उत्पाद जीवन के विरुद्ध है, उसकी माँग का बढ़ता जाना, सामाजिक बीमारी के लक्षण नहीं, तो और क्या हैं?

दूसरी समस्या से तो लगभग हर कोई प्रभावित है - अपने जीवन के अर्थ को समझना भी एक मानसिक प्रक्रिया है। हर तार्किक-प्राणी इस अर्थ को समझने और कमाने का अथक प्रयास कर रहा है। मैं भी तो एक तार्किक-प्राणी हूँ। सफलता-असफलता से मेरा मन भी प्रभावित होता है। कभी शांत होता है, कभी विचलित, कभी उत्साहित हो जाता है, तो कभी तनाव से ग्रस्त हो जाता है। यह उठा-पटक ही तो जीवन के अर्थों को समझने में सहायक होती हैं। मन अगर समस्या है, तो समाधान उसको पराजित करने बाद ही मिल सकता है। 

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The current Tax Regime in India is not only regressive and complicated, but also more often than not it is punitive in nature. The flow of economy is too wild to tame. The contract between macro-economy and the micro-economy has been corrupted and its integrity is widely compromised.